पहाड़ी भाषा दी नौई चेतना .

Tuesday, July 29, 2025

गल सुणा


 

कवि कवतां लिखदा। तिसते पचांह् तिसदी कवता दे बारे च इक सोच भी हुंदी। सैह् क्या सोचदा, सैह् कदेह्या जीवन जींदा, कवता किञा लिखदा, लिखदा कि नीं लिखदा... देह् देह् तिह्दे हजारां शक शुब्हे हुदें। अज पढ़ा कवि अनूप सेठी दे वचार। तिन्हां दी इक कवतां दी कताब है 'चयनित कविताएं। तिसच तिन्हां इक आत्मकथ्य लिखया है। इस च कवि कनै कविता दे बारे च कनै अजकणे समय दे बारे च कुछ गलबात है। पढ़ी नै दिक्खा भला।  

झुकेयां शब्दां नै कवता किञा लिखी जाऐ

आत्मकथ्य लिखना सौखा कम नीं है। सै: फैल्या बड़ा हुंदा। तिसयो समेटणे ताईं बड़ा बगत चाहिदा; याद कनै ताकत भी। आत्मकथ्य दे दायरे जो छोटा करी लइये ता शायद कम सौखा होई जाऐ। एह् आत्मकथ्य चुणियां कवतां दिया कताबा ताईं है, इस करी नै इसजो कवता तक ही रखिये ता ठीक रैह्णा। पर एह् कम भी सौखा नीं है। 

कवता लिखणे नै मेरा रिश्ता अजीब जेह्या है। कवता लिखणे दी इच्छा ता बड़ी हुंदी पर लखोंदी बड़ी घट। लगदा भई लिखणा जितणा टळी जाऐ, उतणा ही खरा। कनो-कनिया एह् भी भई जे किछ अंदर-बाह्र दिखया-परखेया है, जाणया-निरखया है, समझया-जाणया है, तिसजो व्यक्त करने दी ताह्ंग मने च भी रैह्ंदी है। सरोसरिया दिख्या जाऐ ता एह् दो खिलाफ गल्लां या दो ध्रुव लगदे। पर जरा डुग्घे जाई नै सोच्या जाऐ ता ऐसी गल है नीं। इसा मन:स्थितिया जो विरोधी गल्लां च तालमेल बोल्या जाऐ ता ठीक होणा। शायद इसी तरीके नै असली हालत समझा औऐ। विरोधी गल्लां च एह् तालमेल भी ऐसा है भई एह् दोह्यो किनारे इक्की दूए जो पूरा करने आळे परतीत हुंदे – लिखणे दी इच्छा है पर मन लिखणे ते कतरांदा रैंह्दा। 

मेरे ख्याले च एह् कोई नौखी गल नीं है। शायद हर कुसी नै एह् देह्या ही हुंदा है। कई बरी लिखणे ते बचणे दे गीत ज्यादा गाए जांदे, पर इस जो सधारण स्थिति ही मनणा चाहिदा है। 

असली गल एह् है भई अप्पी जो व्यक्त करने दी इच्छा ठाठां मारदी रैंह्दी। सही पल पकड़ा च आई जाऐ ता लखोई जांदा। तिस पले दिया न्ह्याळपा च बड़ा बगत निकळी जांदा। एह् इक्की किस्मा दी अंदरूनी लड़ाई है। कनै फिरी जाह्लू कोई रचना या कवता बणी जांदी है तां सैह् सबनां दी होई जांदी। 

एह्थी फिरी दो सिरे साम्ह्णै आई जांदे। लिखणा पूरे तरीके नै निजी कम है। तकरीबन गुपचुप। या बोला भई गुप्त। लिखणे परंत कुसी रसाले च छपणे या कुसी कताबा च शामिल होणे  पर या कुसी दूए माध्यम पर प्रसाारित होणे पर रचना पाठके व्ह्ल पूजी जांदी। एह् इक्की किस्मा दी बाहरी कारगुजारी है। एह् भी दो सिरे ही हन। इक बौह्त ज्यादा निजी, दूआ खुल्ला, सार्वजनिक, व्यावहारिक। (पाठके दा अपणा एकांत हुंदा, पर सैह् इक अलग प्रक्रिया दा हिस्सा है।) एह् दोआ सिरे अप्पू चियें विरोशी लगी सकदे पर हन नीं। 

लिखणे दे छोट-छोटे वक्फेयां जो छडी देया, जेह्ड़े बड़े निजी पल-छिन हुंदे, तां बाकी जीवन बड़ा सधारण, दुनियावी किस्मा दा रैंह्दा है। मेरा जीवन मध्यवर्गीय शैह्री बाबू किस्मा दा रेह्या है। मैं ज्यादातर तिसा ही भूमिका च रैह्ंदा। नौकरिया दी, शैह्री जीवन च संतुलन बणाई रखणे दी, जेह्ड़े जीवन मुल्ल कमायो तिन्हां जो अमल च ल्यौणे दी जद्दोजैह्द लगातार चली रैंह्दी है। मेरिया जिंदगिया दा इक सिरा इक छोटे प्हाड़ी शैह्रे नै भी जुड़ेया है। जिदिह्या वजह नै महानगरे कनै कस्बे दे जीणे दिया सोचा बिच रगड़-घस्स चली रैंह्दी है। अपणे टबरे च रैंह्दयां होयां जितणी ऊर्जा खर्च करदे, तिसते ज्यादा असां जो मिलदी रैंह्दी है। अनुभवां दा माल-मत्ता भी कट्ठा हुंदा रैंह्दा। इस सधारण रोज के जीणे च कइयां किस्मां दे अंतरविरोधां दा भी पता लगदा रैंह्दा। तिन्हां च ते कुछ अपणिया होंदा नै फसी भी रैंह्दे। 

इस सब किछ दे सौगी कवता लिखणे दा सुपना भी अहां दिखदे रैंह्दे। जेह्ड़े जीवन अनुभव मिलदे सैह्यी रचना करने ताईं कच्चा माल बणदे। इस तरीके नै इक होर जक्स्टापोजीशन बणदी। सैह् एह् भई बेहद सधारण जिंदगिया च होणे आळे अनुभवां ते ही रचना संसार बणाणे दी कोशिश हुंदी, अपर अनुभव घट भी हुंदे जांदे कनै स्टीरियोटाइप भी होणा लगी पौंदे। हमेशा एह् शक पयी रैंह्दा भई खबरै लिखणे च अनूठापन है भी कि नीं। एह् कोशिश ता हमेशा रैंह्दी भई लेखन जेनुअन यानी सच्चा होऐ, पर कला दिया कसौटिया पर सैह् कितणा खरा है, एह् शक मने च रैंह्दा। जेह्ड़ा लिखेया गया सैह् पाठक दे अनुभव दा हिस्सा बणदा, कितणा बणदा, अपणे व्ह्ल खिंजदा भी हे या नीं, कुछ पता नीं लगदा। सैह् ता पारले पासे दी दुनिया है। 

कोरोना काल कनै उसते बाद एक अजीब ठंडापन, उदासी कनै उदासीनता आई है। राजनीति च भी उलटफेर होया है। मतेयां सालां ते पळोंदा-पसोंदा दक्षिणमुखी झुकाव समाज दिया उपरलिया सतह पर उग्र होई नै तरना लगया है, सिर्फ अपणे मुल्के च ही नीं, कइयां मुल्कां च। इस बिच प्रगतिशील धारा अपणेयां अंतर्विरोधां पछाणी नीं सकी कनै लगातार अपणिया नजरां च भी संदेह दी शकार हुंदी गई। रूस युक्रेन युद्ध असां पचाई ही लेया है। फिलीस्तीन इस्राइल दुश्मनी भी असां जो संवेदनहीन ही बणा दी है। जो चल्ला दा है, अहां तिसजो चुपचाप मनदे जांदे। मत्थैं इक त्योरी नीं। चीजां इतणियां गड्डमड्ड हन, इतणियां तहदार, इतणियां उघड़ियां, इतणियां छुपियां, भई तिन्हां दा सिरा ही हत्थैं नीं औंदा। उत्तर सत्यदे समे च समें समझा ही नीं औआ दा। भ्रम चौंह् पासैं है। जित्थू भ्रम होऐ, ओत्थू मतिभ्रम दा शक हुदा ही रैंह्दा है। 

कुछ भी लिखणा लगदा तां लगदा भई मसले दिया तळिया तक नीं पूजी होआ दा। कुसी शब्दे जो पकड़ी करी तिह्दे माह्ने खोलने दी कोशिश करदा तां शब्दे दियां अर्थच्छटां उलझाई लैंदियां। शब्द देयां अभिप्रायां च इतिहास दी पंड बझियो रैंह्दी है। शब्द अजा़द नीं होई सका दे। पंडा दा भार जिस पासें जादा हुंदा, शब्द तिस पासे दा ही अर्थ देणा लगी पौंदे। शब्दां जो धोई-पछीटी करी निर्मल निष्पक्ष किञा कीता जाऐ? झुकेयां लफ्ज़ां नै कवता किञा लिखी जाऐ। जे लखोई भी गई तां सैह् कवता अपणे समे देयां पळेसां जो किञा दिखगी, खोलणे दी गल ता छडी देया।


अनूप सेठी
कवि, अनुवादक।
जगत में मेला, चौबारे पर एकालाप, चयनित कविताएं (कविता संग्रह),
चोमस्की : सत्ता के सामने (अनुवाद) 
 


झुके हुए शब्दों से कविता कैसे लिखी जाए

आत्मकथ्य लिखना आसान काम नहीं है। उसके विस्तार को समेटना हो तो बहुत समय चाहिए; स्मृति और ऊर्जा भी। आत्मकथ्य के विषयक्षेत्र को सीमित कर लिया जाए तो शायद आसानी हो जाए। चूंकि यह आत्मकथ्य चयनित कविताओं के संकलन के संदर्भ में है, इसलिए इसे कविता तक सीमित रखना ठीक रहेगा। हालांकि यह काम भी आसान नहीं है। 

कविता लेखन के साथ मेरा रिश्ता अजीब सा है। कविता लिखने की इच्छा बहुत होती है, पर कविता लिखी बहुत कम जाती है। लगता है लिखना जितना टल जाए उतना अच्छा। साथ ही जो भीतर-बाहर देखा-परखा है, जाना-निरखा है, समझा-जाना है, उसे अभिव्यक्त करने की आकाँक्षा भी बनी रहती है। पहली नजर में यह विरुद्धों की या ध्रुवाँतों की स्थिति लगती है। जरा गहराई से सोचा जाए तो ऐसा है नहीं। उसे विरु‌द्धों में सांमजस्य कहा जाए तो शायद ठीक रहे? शायद इसी तरह वस्तुस्थिति समझ में आए। यह विरुद्धों में सांमजस्य भी ऐसा है कि ये दोनों छोर परस्पर अनुपूरक ही प्रतीत होते हैं- लिखने की इच्छा है, पर मन लिखने से कतराता रहता है। 

मेरे ख्याल से यह अनोखी बात नहीं है। शायद हर किसी के साथ ऐसा होता है। बाजदफा लिखने से बचने को बढ़ा-चढ़ा कर भी पेश किया जाता है। पर इसे सामान्य स्थिति ही मानना चाहिए। 

असल बात यह है कि खुद को अभिव्यक्त करने की इच्छा ठाठें मारती रहती है। सही क्षण जब पकड़ में आ जाए तो लिखना संभव हो पाता है। उस क्षण के इंतजार में बहुत समय बीत जाता है। यह एक तरह का आंतरिक संघर्ष है। जब रचना या कविता संभव हो जाती है तो वह सार्वजनिक हो जाती है। सब की हो जाती है। 

यहां भी दो छोर हैं। लिखना नितांत निजी कार्य है। लगभग गुपचुप। या कहें गोपनीय। लिखे जाने के बाद किसी पत्रिका में प्रकाशित होने पर या किसी पुस्तक में संकलित होने पर या किसी अन्य माध्यम में प्रसारित होने पर रचना पाठक के पास पहुंच जाती है। यह एक तरह की बाहरी गतिविधि है। ये भी दो छोर ही हैं। एक बेहद निजी, दूसरा खुला, सार्वजनिक, व्यावहारिक। (पाठक का अपना एकांत होगा, पर वह एक अलग प्रक्रिया का हिस्सा है।) ये दोनों छोर परस्पर विरोधी लग सकते हैं पर हैं नहीं। 

लिखने के छोटे छोटे अंतरालों को छोड़ दें, जो बेहद निजी क्षण होते हैं, तो बाकी जीवन बेहद साधारण, दुनियावी किस्म का रहता है। मेरा जीवन मध्यवर्गीय शहरी बाबू किस्म का रहा है। अधिकांश समय उसी भूमिका में रहना होता है। नौकरी की, शहरी जीवन में संतुलन बनाए रखने की, अर्जित जीवन मूल्यों को व्यवहार में लाने की जद्‌दोजहद निरंतर चलती रहती है। मेरे जीवन का एक छोर छोटे पहाड़ी शहर से भी जुड़ा रहा है, इसलिए महानगरीय जीवन और कस्बाई जीवन की सोच के बीच घर्षण भी चला रहता है। आप अपने परिवार में रहते हुए जितनी ऊर्जा खर्च करते हैं उससे ज्यादा पाते रहते हैं। अनुभव संपदा भी जुटती रहती है। इस साधारण दैनंदिन जीवन में कई तरह के अंतर्विरोंधों से भी आप दो चार होते हैं। कुछ अंतर्विरोधों का पता चल जाता है, कुछ अनजाने में व्यक्तित्व में फंसे रहते हैं। 

इसी सब के साथ कविता लिखने का स्वप्न आप दिन रात देखते रहते हैं। जो जीवन अनुभव मिलते हैं, वही रचनात्मकता का कच्चा माल बनते हैं। इस तरह एक और जक्स्टापोजीशन बन‌ती है कि बेहद साधारण जीवन में से, जिसमें अनुभव भी सीमित और स्टीरियोटाइप होने लगते हैं, उन्हीं में से अपना रचना संसार खड़ा करने की कोशिश रहती है। यह संदेह हमेशा बना रहता है कि लेखन में पता नहीं अनूठापन आ भी रहा है या नहीं। वह जेनुइन हो, यह कोशिश तो हमेशा रहती है, पर कला के निकष पर वह कितना खरा है, इसमें संदेह बना रहता है। वह लिखा हुआ पाठक के अनुभव का हिस्सा बन पाता है, कितना बन पाता है, अपनी ओर खींचता भी है या नहीं, कुछ पता नहीं चलता। वह तो उस पार की दुनिया है। 

कोरोना काल और उसके बाद एक अजीब ठंडापन, उदासी, उदासीनता आई है। राजनीति में भी उलटफेर हुए हैं। लंबे समय से पल-बढ़ रहा दक्षिणमुखी झुकाव समाज की ऊपरी सतह पर उग्रता से तैरने लगा है, सिर्फ अपने यहाँ ही नहीं कई देशों में। इस दौरान प्रगतिशील धारा अपने अंतर्विरोधों को पह‌चान नहीं पाई और लगातार अपनी नजर में भी संदिग्ध होती चली गई। रूस युक्रेन युद्ध को हमने पचा ही लिया है। फिलीस्तीन इस्राइल दुश्मनी भी हमें संवेदनहीन ही बना रही है। जो चल रहा है, हम उसे चुपचाप स्वीकार करते जाते हैं। माथे पर शिकन तक नहीं। चीजें इतनी गड्डमड्ड हैं, इतनी परतदार, इतनी उघड़ी हुई, इतनी छुपी हुई, कि उनका सिरा ही पकड़ में नही आता। 'उत्तर सत्य' के समय में समय समझ में ही नहीं जा रहा है। भ्रम चहुं ओर है। भ्रम में मतिभ्रम की शंका होती रहती है। 

कुछ भी लिखने लगता हूँ तो लगता है, मसले की तह तक पहुंच नहीं पा रहा हूं। किसी शब्द को पकड़ कर अर्थ को खोलने की कोशिश करता हूँ तो शब्द की अर्थच्छटाएं उलझा लेती हैं। शब्दों के अभिप्रायों में इतिहास की गठड़ी बँधी रहती है। शब्द स्वतंत्र नहीं हो पाते। गठड़ी का झुकाव जिस तरफ होता है, शब्द भी उसी तरफ के अर्थ देने लगता है। शब्दों को धो-पछीट कर निर्मल निष्पक्ष कैसे किया जाए? झुके हुए शब्दों से कविता कैसे लिखी जाए? लिखी भी गई तो वह कविता अपने समय की गुंझलकों को कैसे निरखेगी, खोलने की बात तो छोड़ ही दीजिए।

(चित्र: वासुदेव गाएतोंडे, इंटरनेट से साभार) 

Friday, July 18, 2025

पुस्तक चर्चा

 


रामलाल पाठक होरां दी कितााब हिमाचली पहाड़ी लोकगीतों में जनजीवन हाल च ही छपी है। 

इसा कताबा पर कुशल कुमार होरां चर्चा करा दे हन- पहाड़ी हिन्दी दूंईं भाषां च।  

 

हिमाचली पहाड़ी लोकगीतों में जनजीवन’ कताबा च हिमाचली लोक गीतां कन्नैं संस्कृति दे बारे च रामलाल पाठक होंरां दे समें-समें पर लिखेयो 18 लेख शामल हन।

हालांकि सैह् जमाना बीती गिया, जदेह्डी़ लोक गीतां च जींदे, नचदे-गांदे थे। सारे संस्कार, त्यौहार ऐथू तिकर कि मौसम भी गीतां च ही हाजरी लांदे थे। म्हाणुए दियां खुशियां, जोश, दुख, पीड़, आसा-नरासा सब कैसी दे साथी लोकगीत ही होंदे थे।

हुण वग्ते दिया दौड़ा च सैह् जीणा कनै तिस दे गीत बड़े पचांह् रही गियो। हुण ता सैह् बुजुर्ग भी घट दे जा दे, जेह्ड़े हर संस्कार कनै मौके पर तिस दे गीतां गाणा लगी पौंदे थे। हुण ता बस इक डीजे दा रौळा है। कनैं सारा गुस्सा, प्यार, त्यौहार पंज तारा ठेके पर हन।

फिरी भी इक खरी गल एह् है भई एह् देह्यां लेखां कने कताबां दे जरिए इन्हां दी सांभ होआ दी। मते सारे लोकगीतां दे ऑडियो-वीडियो भी हन। भाषा नै भले ही खेल होआ दा पर नौंए गवईए लोकगीतां नोएं तरीके ने गा दे। इसा कताबा साही सैह् बी गीत पहाड़िया च गा दे कनैं गीतां ते लावा सारी गलबात हिन्दिया च ही करा दे। लोक गीत डीजे पर भी लोकां जो नचा दे। एह् बड़ी तसल्लिया वाली गल्ल है।

इसा कताबा च गुजरी-कृष्ण, सौण म्हीना, बंगड़ियां, पणघट, मोर, लोक कनै प्रेम कथाँ पर गीतां दे बारे च लेख शामाल हन। लोकनाट्य धाजा कनैं गूग्गा कथाँ दे गीत संगीत दे बारे च छैल आलेख हन। 

जित्थू तिकर लोक दी गल्ल है, माह्णू सदियां ते प्यारे ही गांदां औआ दा। इन्हां गीतां गाई कनैं इन्हां दिआ ताना पर नाची पाई माह्णू थोड़िया देरा ताईं अपणया जळबां, पीड़ां सौगी-सौगी दुनिया दे बन्ह्णा ते ऊपर उठी जांदा। कृष्ण कनै राधा गुजरिया दा अलौकिक प्रेम होए या राँझू-फूल्मू, कूंजू-चंचलो, देई-जुलफू, देबकू-जिंदू, चन्दो ब्राह्मणी-लच्छिया दा लौकिक प्रेम। इन्हां सारयां च विरह, पीड़ कनैं मस्ती ही गांदी। 

रामलाल पाठक

कुस्सी व्याहत्ता जणासा दिया कुरबनिया नै सुक्किया जगह पाणी बगणे दियां कथाँ सारे देसे च  मिलदियां। सुधा मूर्ति होरां भी एह् देहिआ घटना पर कहाणी लिखियो। हिमाचल च चंबे दी  राणी  सुनयना, कांगड़े दिया रुला री कूह्ल दिया परंपरा च बिलासपुर दी देवी रुक्मिणी दी कथा  कनैं गीतां पर भी लेख है। इनां सारियां कथाँ पढ़ने ते बाद इक सुआल मतयां सालां ते मेरे  पिच्छें  पिआ। भई, इक निरदोष, बेगुनाह, पवितर-सुच्ची आत्मा दी बळी लई नै ही  पाणी  किंञा  कनैं कैंह् बगणा लगी पौंदा?

कताबा च  हिमाचली लोक गयिका गम्भरी देवी कनैं लोक नृत्य कलाकारा फूलां चंदेल दे बारे  च बड़ी बधिया जाणकारी है। बलासपुर दी कताबा च मोहणा दी कथा नीं होए, एह् होई नीं  सकदा। मिंजो लगदा इकी  भाऊए दिया बैमानिया नैं इक सिधे सादे माह्णुए जो छळी नैं सूळिया चड़ाणे दी एह् घटना  समाज, व्यवस्था कनैं असां सारयां ते मते सारे सुआल पुछदी। पर जित्थू तिकर मेरी जाणकारी है, गीत्तां च ही नपटाई नैं समाज बेह्ला  होई गिया। एह् गल बखरी है कि अज भी लोग मोहणे दे गीत्तां गाई जा दे।

इक्की ही गल्ला जो ही दूईं दूईं लैणी च दूईं तरीकएं नैं गलाणे वालिया इन्हां पखेनां ते हिमाचली पहाड़ी भासा दिया मुस्कला जो समझया जाई सकदा। 

माखे-ताखे बाघला, बाइयां-ताइयां हंडूरो।

जालू-तालू कांगड़े, साफ गल्ल कहलूरो।

 

माखे-ताखे बाघला, कड़क बोली हंडूर।

जालू-तालू कांगड़ी, बांकी बोली कहलूर। 

इन्हां पखेना पढ़ी नै इक होर पखेण याद ओआ दी। इक पुतर है सैह् सारयां ते नूठा, छैल कनैं बड़ा गुणी है। कनैं एह् पुतर सारियां माऊं भाल है। 

इस कनै कनै पाठक होरां दा एह् गलाणा बिल्कुल दुरुस्त है। भले ही बोलियां अप्पू च मेल नी खांदियां  पर 12 ते 10 जिल्यां दे लोक इकी दूजे दे लोकगीतां जो समझी लैंदे। इसा समझा नै बोलियां भी समझा आई सकदियां जे असां इन्हां जो बी लोकगीतां साही प्यार करन। एह् गल बक्खरी है कि दूए दी समझणा ता दूरे दी गल है असां ता अप्पणिया बोलियां ही भुलदे कनैं छडदे जा दे।

 

मुखिया जे गांवा रा पाणिए जो जांदा

बाई पर पाणी नहीं मिलेया।

कुला रे परोहिता जो पुछदा

बाईं बिच पाणी किंञा मिलणा।

जेठे जे पूता री बलीं देयाँ

बाई बिच पाणी ताईं मिलणा।

 

जद अम्मा पलगां ते उतरी

डयोढिया जे खड़ी

कावे कड़-कड़ लाई।

देयां अम्मा मेरे कपड़े

गुंदेया मेरे सिरे जो

रुकमणी चली सौरियां रे देस।

 

जद मेरा डोला आंगणा जे उतरेया

खाली घड़ोलू आंगणा ते चकेया

पले पले रोंदी अम्मा मेरिये।

तू काजो रोंदी अम्मा मेरिये

रूकमणी मुड़ी के नी आऊणी

 

 

मुंबई में पले बढ़े कवि अनुवादक कुशल कुमार
2005-2010 तक मुंबई से हिमाचल मित्र पत्रिका का संपादन किया।
चर्चित द्विभाषी कविता संग्रह मुठ भर अंबर।

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हिमाचली पहाड़ी लोकगीतों में जनजीवन’ किताब में हिमाचली लोकगीतों और संस्कृति के बारे में रामलाल पाठक जी द्वारा समय-समय पर लिखे गए 18 निबंधों का संकलन है। 

हालांकि वह जमाना बीत चुका है, जब लोग जीवन को गीतों में जीते, नाचते गाते थे। सारे संस्कार, त्योहार  यहां तक की ऋतुएं और मौसम भी गीतों में ही हाजरी लगाते थे। खुशी और उत्सवों के ही नहीं हमारे अवसाद और दुख के भी साथी लोकगीत ही होते थे। 

अब समय की दौड़ में वह जीवन और उसके गीत बहुत पीछे छूट गए हैं। अब तो वे बुजुर्ग भी लुप्त होते जा रहे हैं, जो हर संस्कार के अवसर पर उसके गीत गाने लगते थे। एक डीजे का शोर है और सारा गुस्सा, प्यार और जश्न पंच तारा ठेके पर है। 

फिर भी एक अच्छी बात यह है कि इस तरह के लेखों और किताबों के जरिए इन्हें सहेजा जा रहा है। साथ ही बहुत सारे लोकगीत ऑडियो-वीडियो रूप में उपलब्ध हैं। भाषा के साथ भले ही खेल हो रहा है परंतु नए गायक उन्हें नए तरीके से गा रहे हैं। इस किताब की तरह वे भी गीत पहाड़ी में गाते हैं और उनकी बात हिंदी में करते हैं। यह बड़ी तसल्ली की बात है कि लोकगीत डीजे पर भी लोगों को नचा रहे हैं। 

इस किताब में कृष्ण-गुजरी, सावन, बंगड़ियां, पनघट, मोर, और प्रेम गाथाओं आदि के गीतों पर सुन्दर निबंध शामिल हैं।

लोकनाट्य धाजा तथा गुग्गा की गाथाओं तथा उनके गीत संगीत के बारे में जानकारी से भरे अच्छे आलेख हैं। 

जहां तक लोक की बात है, सदियों से इंसान प्रेम को गाता आ रहा है। इन्हें गाते हुए और इनकी तान पर नाचते हुए कुछ देर के लिए इन्सान तकलीफों, पीड़ाओं के साथ-साथ दुनिया के बंधनों से भी ऊपर उठ जाता है। फिर वह कृष्ण-राधा गुजरी का अलौकिक प्रेम हो या राँझू-फूल्मू, कूंजू-चोंचलों, देई-जुलफू, देबकू-जिंदू, चन्दो ब्राह्मणी-लच्छिया जैसी लौकिक प्रेम की गाथाएं हों। इन सब में विरह, पीड़ा और मस्ती ही गाती है। 

किसी विवाहित स्त्री की कुर्बानी से सूखी जगह पर जल स्रोत प्राप्त होने की कथाएं सारे भारत में मिलती हैं। सुधा मूर्ति जी ने भी इस तरह की कर्नाटक की एक घटना पर कहानी लिखी है। हिमाचल में चंबा की रानी सुनयना तथा कांगड़ा की रुला री कूह्ल की परंपरा में बिलासपुर की देवी रुक्मिणी की कथा व गीतों पर भी लेख है। इन सब कहनियां में एक सवाल मेरा पीछा करता है कि एक निर्दोष, बेगुनाह, पवित्र, पुण्य आत्मा की बलि लेकर ही पानी का स्रोत क्यों और कैसे फूट कर बहने लगता है? 

किताब में हिमाचली लोग गायिका गम्भरी देवी तथा लोक नृत्य कलाकारा फूलां चंदेल के बारे में सारगर्भित लेख है। बिलासपुर की किताब हो और मोहणा का जिक्र ना हो ऐसा हो ही नहीं सकता है। 

मुझे लगता है कि एक भाई द्वारा बेईमानी से एक सीधे-साधे इंसान को छल से सूली पर चढ़ा देने की यह घटना समाज, व्यवस्था और हम सबसे बहुत सारे सवाल पूछती है। पर जहां तक मेरी जानकारी है। समाज ने इसे गीतों में गा कर निपटा दिया है। यह अलग बात है कि आज भी उसके गीत गाए जा रहे हैं। 

एक ही बात को दो-दो पंक्तियों में दो तरह से कहने वाली इन लोकोक्तियों से हिमाचली पहाड़ी भाषा की मुश्किलों को समझा जा सकता है। 

 

माखे-ताखे बाघला, बाइयां-ताइयां हंडूरो।

जालू-तालू कांगड़े, साफ गल्ल कहलूरो।

  

माखे-ताखे बाघला, कड़क बोली हंडूर।

जालू-तालू कांगड़ी, बांकी बोली कहलूर।

 इन लोकोक्तियां को पढ़कर एक और लोकोक्ति याद आ रही है। एक बेटा है जो सबसे अनूठा, सुंदर, गुणी और बहुत ही संस्कारी है और यह बेटा हर मां के पास है। 

इसके साथ-साथ पाठक जी का यह कहना बिलकुल दुरुस्त है कि भले ही बोलियां आपस में मेल नहीं खाती हैं पर 12 में से 10 जिलों के लोग एक दूसरे के लोकगीतों को समझ लेते हैं। इसी समझ से बोलियां भी समझ में आ सकती हैं यदि हम उन्हें भी लोकगीतों की तरह ही प्यार करें। यह अलग बात है कि  दूसरे की समझना तो दूर की बात है, हम अपनी ही बोलियां को  छोड़ते जा रहे हैं।


Thursday, June 19, 2025

साहित्य इतिहास : पुस्तक चर्चा


रमेश मस्ताना होरां दी कांगड़ी पहाड़ी दे इतिहास दी परचोळ करने आळी कताब हाल च ही छपी है। इसा कताबा दी पहाड़िया कनै हिंदिया च चर्चा करा दे भगतराम मंडोत्रा होरां। साहित्य इतिहास लिखणा असान कम्म नीं हुंदा। इस करी असां मस्ताना होरां जो कुछ सवाल भेजे। पहाड़ी समीक्षा ते बाद एह् सवाल जवाब हन। कनै आखर च कताबा दी हिंदिया च समीक्षा है।   


इक नूठी कनैं नौंईं पैहल है : कांगड़ी-प्हाड़ी-च प्रकाशत साहित्त : रीत-परम्परां कनैं त्याह्स

 

रमेश चन्द्र 'मस्ताना' होरां दी कताब  “कांगड़ी-प्हाड़ी-च प्रकाशत साहित्त : रीत-परम्परां कनैं त्याह्स”  इक इदेह्यी कताब है, जिसा यो सच्ची-मुच्ची इक नूठी कनैं नौंईं पैहल ग्लाया जाई सकदा है। इसा कताबा-च जिला कांगड़े दे परांणे त्याह्से दी गल्ल तां होइयो ही है, कन्नैं ही कांगड़े दे जितणे वी कवि-लखारी होए हन कनैं तिन्हां जिसा वी विधा-च जे किछ वी लिखी नैं कताबा दे रूपे-च छापेह्या है, सारे दी ही गल्ल-बात कनैं समीख्या इसा कताबा-च होइह्यो है। 'मस्ताना' होरां अपणी गल्ल-बात रखदेयां होयां अपणी मूरह्ली गल्ल-च इसा कताबा दे लिखणे दे मकसद दे बारे-च साफ-साफ दसी दित्तेह्या है। सैह् लिखदे हन कि जिंञां तिन्हां जिले कांगड़े दियां हदां ते अन्दर ओंणे वाळे लिखारियां दियां रचनां दा इसा कताबा च जिक्र कित्तेह्या है, तिंञां ही जे हर जिले दे लखारी, अपणे-अपणे जिले दे अपणी मां-बोली-च लिखणे वाळे लखारियां दियां रचनां पर लिखह्ण तां ‘हिमाचली-पहाड़ी’ दा कल्याण तां होंणा ही होंणा कनैं क्या-किछ कदेह्या लखोह्या है, तिस दा वी पता लगी जांणा।  कुसी इक लखारिये तांईं हिमाचल प्रदेशे देयां बारहां जिलेयां देयां लखारियां दियां सारियां रचनां दा जिक्र कनैं तिन्हां नैं पूरा न्या करनां भ्हौंएं नांमुमकिन तां नीं है पर थोड़ा-ब्हौत मुश्किल कम्म तां जरूर बझोंदा है। 'मस्ताना' होरां हिमाचल प्रदेशे दी भाषा दे नांयें दे बारे-च पैदा होआ दे मतभेदां दा वी जिक्र कितेह्या है कनैं तिसा दे हिमाचली-पहाड़ी नां दी वी वकालत कितिह्यो है। सैह् एह् वी मनदे लग्गे कि हिमाचली-पहाड़ी जो मन्नता मिलणा हाली तिकर दूरा दी ही कौड़ी है। तिन्हां जो एह् गल्ल वी बड़ी अखरदी बझोई है कि हिमाचली-पहाड़ी-च कवतां मतलब पद्य तां खूब लखोआ दा पर गद्य दे बखरे-बखरे रूपां-च बड़ा ही घट लखोह्या कनैं कताबां दे रूपे-च छपेह्या है। जदकि असलीत एह है जे गद्य लखोणा कनैं छापणा भाषा दी तरक्की तांईं बड़ा लाजमी है। 'मस्ताना' होरां हिमाचली-पहाड़ी-च जियादा ते जियादा कताबां छापणे दी जरूरता पर वी जोर दिंदे नजरी आये हन। तिन्हां एह् सुझाओ वी बड़े जोरैं-शोरैं नैं दित्तेह्या है जे अपणियां लिखिह्यां कताबां दूजेयां लिखारियां-च, खास करी नैं समीख्या करणे वाळेयां-ल जरूर पुजांणियां चाहिदियां तां जे तिन्हां जो पढ़ी नैं समीख्या करणे आल़ा विदुआंन तिन्हां पर किछ लिखी नैं लो पाई सकन।

मिंजो 'मस्ताना' होरां दियां गल्लां कनैं सुझाअ बड़े बद्धिया कनैं सच्चे-सुच्चे लग्गे।  दरअसल असां हिमाचली-पहाड़ी जो कवतां कनैं गीतां दी भाषा ही बणाई छड्डेह्या है। असां सटो-सटिया कवतां ही लिखी जाह्दे कनैं कहाणी, नाटक, लेख, उपन्यास, संस्मरण बगैरा-बगैरा लिखणे दी हाली तिकर वी टाळ ही करा दे हन। अनुवादे दे नांएं पर तां अतिह्यें किछ वी खास नीं होई सकेह्या है। भ्हौंएं लखारियां यो हिमाचली-पहाड़ी-च कवता लिखणा सौखा लगदा होऐ पर एह् गल्ल तां पक्की है जे गद्य दे लखोणे नैं ही पहाड़ी भाषा कनैं मां-बोली दा कल्याण कनैं बाद्धा होंणा है। एह् औक्खा कम्म कुण करह्गा, इसा गल्ला पर वचार होंणा बड़ा जरूरी है ! लखारियां जो इक्की-दूए दियां कताबां जरूर पढ़नियां चाहिदियां कनैं होई सकै तां खरीदणियां वी जरूर चाहिदियां। पढ़ी करी तिन्हां पर अपणी गूढ़ कनैं निर्पक्ख गल्ल-बात वी जरूर रखणी चाहिदी। इसते सारेयां ते बड्डा फाइदा एह् होंणा जे साहित्ते दा मुल्ल वी पौंणा कनैं भाषा दा मानकीकरण वी अपणे-आप ही होंदा चलणा।

कुसी वी गल्ला जो समझणे तांईं तिसा गल्ला दिया जड़ां तिकर पुजणा बड़ा लाजमी होंदा है। कताबा दे पैह्ले ही ध्याये-च कांगड़ा कनैं कांगड़ी दे त्याह्से पर संक्षेप-च बड़ी डुग्घी नजर पाइह्यो है। अपणी जन्म भूमि, अपणे पुरखेयां कनैं वरास्ता-च जे किछ मिलेह्या है, सारेयां जो तिसदी जाणकारी होंणा वी बड़ी जरूरी है। इस दे सौगी-सौगी अपणी-अपणी मां-बोली नैं प्यार कनैं तिसा जो बड़े गरवे कन्नैं बोलणे दा फर्ज वी हर शख्से-यो जरूर नभाणा चाहिदा। दूए ध्याये-च 'मस्ताना' होरां साहित्ते दे भेह्त-किस्मां कनैं लोक-साहित्ते पर लौ पांन्दे हन। एह् ध्याये तां मेरे बरगे स्टूडेंटां तांईं बड़ा ही कम्में दी जानकारी दिंदा है। 'मस्ताना' होरां अजकणे जमाने दियां खोजां — टी.वी., कम्प्यूटर, लैपटॉप, मुबाइल, टैव दे सौगी-सौगी मीडिया कनैं सोशल मीडिया दे जोगदाने-यो वी साहित्ते दी तरक्की तांईं खास मन्नदे हन।  तिन्हां दा गलाणा है जे कवि कनैं लखारी समाजिक प्राणी बणने दे सौगी-सौगी जेकर साहित्तिक प्राणी वी बणन कनैं इक सच्ची-सुच्ची कनैं सुथरी सोच रखह्ण तां सैह् समाजे-यो इक नौंयीं दिशा कनैं दशा देई सकदे हन। ‘मस्ताना’ होरां लोक साहित्ते दे खजाने जो संभाळी करी रखणे कनैं गांह् दियां पीढ़ियां दे हत्थें पकड़ाणे दी गुहार वी लगांदे हन।

अपणिया इसा किताबा दे त्रिए ध्याये-च 'मस्ताना' होरां कांगड़ी कवता दे प्रकाशत बक्खो-बक्खरे रूप-भेदां पर लो पाइह्यो है । तिन्हां कांगड़ी-पहाड़ी कवता यो चार जुगां-च बंडेह्या है। पैह्ले जुगे जो सैह् ‘बाबा कांशीराम जुग’ दा नां दिंदे हन। दूए जुगे दा समां सन् 1950 ते 1975 दा है, जिस-च सोमनाथ ‘सोम’, लच्छमन दास ‘मस्ताना’, चक्रधारी शास्त्री, डॉ. पीयूष गुलेरी, डॉ. गौतम शर्मा 'व्यथित' बगैरा दे जोगदान दा जिक्र है। त्रीया जुग बीह्मीं सदी दे मुकणे तिकर दिया कवता दा जुग है कनैं इकह्मीं सदी दे शुरू ते लेई नैं अज्जे तिकर दा जुग चौथा जुग है, जिन्हां दा 'मस्ताना' होरां बड़ा विस्तारे नैं जिक्र कितेह्या है। कवतां दियां बक्खो-बक्खरियां सारियां ही विधां-च प्रकाशत कताबां दा पूरा-पूरा विवेचन तिन्हां करनें दी कोसत कितिह्यो है। चाहें सैह् महांकाव्य होए, खंडकाव्य होए, जां चाहें मुक्तक काव्य दा रूप होए।

चौथे ध्याये-च 'मस्ताना' होरां कांगड़ी निबन्ध-लेखां दियां परम्परां पर नजर पाइयो है तां पंजमें ध्याये-च कांगड़ी उपन्यास, कहाणी कनैं लघुकथा दी चर्चा-परचोळ वस्तारे नैं सांह्मणें औंन्दी है। छठे ध्याये-च  इन्हां नाटकां, इक-अंकी नाटकां कनैं काव्य-नाटकां दियां परम्परां दा जिक्र करदे-करदे अभिनै दियां किस्मां, नाटक दे तत्त्वां, पातरां, रसां सौगी-सौगी भेह्तां-प्रकारां पर वी लो पाणे कन्नै कांगड़ी-च प्रकाशत होऐ नाटक साहित्ते दा वस्तारे नैं जिक्र कितेह्या है। कताबा दा सत्तुआं ध्या साहित्तिक विधां दा कांगड़ी-पहाड़ी च अनुवादे दियां परम्परां उप्पर लो पांदा है तां अठुआं ध्या कांगड़ी लोक-गीतां पर विस्तारे नैं गल्ल वी करदा है कनैं तिन्हां दिया साज-सम्हाळा दिया जरूरता पर वी जोर दिंदा है।

खीरी ध्याये च “मुकदी गल्ल कनैं सार-निचोड़” करदे-करदे 'मस्ताना' होरां मां-बोली दिया संभाळा कनैं तरक्किया तांईं बड़े कीमती सुझाओ वी दिंदे हन। एह् किताब अपणिया किस्मा दी इक नोखी कताब ही नीं इक दस्तावेज वी कहायी जाई सकदी है। कांगड़ी साहित्त जां कांगड़े पर शोध करने वाळेयां तांईं तां एह बड़े ही कम्मे दी कताब है। मैं तां एह बड़े फख़्र नैं गलाई सकदा जे अपणी भाषा कनैं साहित्ते नैं प्यार करणे आल़ेयां यो एह् कताब जरूर पढ़नां वी चाहिदी कनैं सहेजणा वी चाहिदी।


कताबा दे बारे च रमेश मस्ताना नै गलबात 


दयार :       तुसां रचनात्मक लेखक हन। इतिहास लेखन दे पासे किंञा आई गै ?

रमेश मस्ताना :  सेठी जी, मेरा एह मनणा है जे साहित्तकार दा फर्ज सिर्फ कवता कनैं लेख लिखणे दा ही नीं हुंणा चाहिदा। समाजिक प्राणी हुंणे दे नाते तिस दी नज़र गांह्-पचांह्, उपर-थल्लैं, खरिइया-बुरिइया सौगी-सौगी भूत, वर्तमान कनैं बड़ी दूर भविक्खे तिकर वी हुंणा चाहिदी। लखारियां यो अपणे त्याह्से दा पता हुंणे सौगी-सौगी तिस त्याह्से-च कुस-कुस दा कितणा कनैं कदेह्या जोगदान रेहया है, सब-किछ दा पता हुंणा जरूरी है। कोई वी कम्म जां रचेया साहित्त जे त्याह्स नां बणाई सकै तां नां सैह कम्म ही कम्म हुंन्दा कनैं नां सैह साहित्त साहित्त ही। जे कोई लखारी अज्ज लिखै कनैं कले-परसूं यो ही खत्म होई जाऐ तां नां सैह त्याह्स ही बणनां कनैं नां ही जुगां-जुगां तिकर अमर ही रैहणा। मैं सिर्फ दो ही दुआह्रण दिंन्दा। पैहला एह जे पंचतंत्र दियां कथां मेरे स्हाबे नैं भ्हौंएं तिस जमानें उतणियां सच्चियां हुंन नां हुंन, अज्ज तिस जमानें ते वी जिआदा सच्चियां बझोन्दियां हन। कबीर जी जे किछ अपणे जमानें-च बोली गेयो, अज्ज बड़े-बड़े शोध करणे आल़े पी. एचडी. कनैं डी. लिट. वी करा दे पर तिन्हां दी वांणी कैंह् जे अमर कनैं त्याह्स बणी चुकियो ऐ, तिसा वांणिया दा पार कोई नीं पाई सका दा है। इस बास्तैं मैं वी माड़ी देई एह कोसत कित्ती जे एह पता तां लाइए जे पूरा म्हाचल नीं तां कांगड़े कनैं कांगड़िया पर ही किछ नजर दुड़ाई जाऐ, जे कांगड़े देयां लखारियां अपणी मां-बोली-च क्या किछ, कदेह्या कनैं कितणा-क लिखेया है, इस ही बास्तैं इस त्याह्से यो कठेरने दा कम्म मैं कितेया है।

 

दयार :       इतिहास लेखन ताईं तुसां क्या त्यारी कीती कनै इतिहास लेखन दी क्या पद्धति अपनाई। क्या तुसां दे साम्हणै पैह्ले दी मिसाल या कताब थी?

रमेश मस्ताना :  मेरे मनें-च इसा सारिया गल्ला-बाता दा वचार केई बरी उठदा था जे म्हारे प्रदेसे दे लखारियां दी वरासत कितणी कनैं कदेह्यी है। तुसां दे मुकदे सुआले दा जवाब तां गांह् जाई दिंगा पर म्हाचली-प्हाड़ी, प्हाड़ी जां म्हाचली भाखा दी मन्नता दे बारे-च जे किछ वी सारे बोलदे कनैं बखरी-बखरी मंग रखदे, पैहलें असां एह तां दिक्खिए जे स्हाड़ा साहित्तिक भंडार कितणा-क भरोया है। जिआदा दूर नीं जाई नैं अपणे नेड़ैं-तेड़ैं दी पंजाबी कनैं डोगरी यो दिक्खी नैं वी सारियां गल्लां किछ-किछ तकड़ुए-च जरूर तोलणियां चाहिदियां। इन्हां-ल क्या कनैं कितणा किछ है कनैं इन्हां दे मुकाबिल असां कुत्थू खड़ोत्यो हन।इस बास्तैं मैं बड़ा सोच-वचार करणे ते बाद इस नचोड़े तिकर ही अप्पूं यो सीमत कित्ता जे अजोके कांगड़े दियां जेह्ड़ियां सीमां हन, तिह् तिकर दे लखारियां दा लेखा-जोखा ही पेश कित्ता जाऐ। केइयां मितरां-सज्जणां एह वी सुझाउ दित्ता जे चम्बे दे भट्टियां 'लाके कनैं ऊनें-हमीरपुरे दे लखारियां यो वी शामल कित्ता जांणा चाहिदा। पर जे सच्ची गल्ल गलां तां ऊनें आल़ी अपणी बोली-भाखा यो ऊनवी कनैं हमीरपुरे आल़े हमीरपुरी बड़े दावे नैं गलांणा लगी पेयो। हुंण तिन्हां दा त्याह्स कनैं बोली-भाखा दा त्याह्स कितणा परांणा है, इसदा जवाब सारे अप्पूं ही तोपन तां खरा है। इस बास्तैं मैं अजोका कांगड़ा ही पकड़ेया कनैं तिस दा त्याह्स वी खंगालेया कनैं साहित्ते दा त्याह्स वी तोपया। कांगड़े दा त्याह्स जे जुगां-जुगां परांणा है तां इसदी भाखा-बोली वी पक्का ही है जे सैह वी उतणी ही परांणी है। मैं एह वी दावे नैं गलांन्दा जे कांगड़े दी कांगड़ी बोली-भाखा पंजाबी, डोगरी सौगी-सौगी पूरे उत्तर भारते-च तां समझी ही जांन्दी है, हिन्दी-भाखी जितणे प्रदेस हन, सैह वी इसा यो बड़िया असानियां नैं समझी जांन्दे कनैं जाह्लू कुसी रचनां यो पढ़दे-सुणदे, सारे पूरा नन्द लैंन्दे हन। जिह् तिकर कोई मसाल जां कताब पैहले दी हुंणे दी गल्ल है तां मैं अपणिया कताबा-च वी जिक्र कितेया है जे इदेह्यी इक कोसत पहलें डॉ. गौतम शर्मा 'व्यथित' नैं जरूर कितियो है कनैं तिस-च बीह्मियां सदीया तिकर दा ही लेखा-जोखा है।

 

दयार :       इतिहास लेखन ताईं कताबां कुतू ते कठियां कीतियां? क्या कोई जानकारी दूएयां स्रोतां ते भी लयी? जेह्ड़े लखारी या कताबां छुटी गइयां तिन्हां दे बारे च तुसां क्या सोचदे?

रमेश मस्ताना : कताबां दी परचोल़ा तांईं बे-स्हाबी चाराजोई कनैं जुगाड़ वी लांणा पे कनैं मगजमारी वी करणा पेई। कांगड़ी-प्हाड़ी दियां काफी कताबां मेरिइया अपणिया लाइबेरिया-च वी हन पर कैंह् जे कोई वी मांह्णू जां चीज कदी वी "सम्पूर्ण" नीं हुंन्दी, इस बास्तैं नां तां मेरा एह कम्म ही सम्पूर्ण है कनैं नां ही अपणिया कोसता यो ही मैं पूरी कामयाब मनदा हां। किछ कताबां मंगुआइयां वी गेइयां, किछनां दी जानकारी मुबाइले दे माध्यम नैं वी पूरी कित्ती पर फिरी वी मैं इसा कताबा दे प्रकाशत हुंणे ते पहले तिकर, मतलब जून : 2024 तिकर दियां प्रकाशत कताबां दा जिक्र करणे दी पूरी कोसत मैं कितियो है, फिरी वी जियां पैहलें ही मैं गलाई बैठा, किछ वी कदीं वी "सम्पूर्ण" नीं हुंन्दा, जे किछ छुटी वी गेया हुंगा तां क्या करी सकदा ! फिरी वी मैं एह गलाई सकदा जे भ्हौंएं इक-अद्ध मापदंडे पर ताजा-ताजा ही अलोचना जरूर होई थी पर मैं तिस जो वी जरूरी नीं मन्नेया था, इस बास्तैं तिस मापदंडे यो मैं नीं अपनाया था कनैं जे कोई लखारी छुटेया वी हुंगा तां तिन्नी मिंजो अज्जे तिकर दस्सेया वी नीं जे मेरा नांअ जां मेरिया कताबा दा जिक्र नीं होया है। मैं एह वी दावे नैं गलान्दा जे लोकार्पण पर जां गांह्-पचांह् वी जितणियां कताबां मैं अप्पूं प्रकाशक हुंणे दे नातें बंडदा, शाइद ही कोई बंडदा होऐ।

 

दयार :       तुसां अपणे इतिहास बिच लखारियां/कताबां दे बारे च दस्सेया है। साहित्य दे आधार पर बणने आळियां परंपरां या प्रवृत्तियां दे आधार पर भी वर्गीकरण कीतेया है ?

रमेश मस्ताना :  मैं साहित्ते दियां सारियां विधां दा जिक्र तां कितेया ही कितेया है, तिन्हां दे सारेयां तत्तां कनैं खासियतां पर वी गल्ल करी नैं सारियां विधां पर बखरे-बखरे ध्यां-च वस्तारे नैं गल्-बात वी कितियो है। इतणा ही नीं इक ध्या सार-नचोड़ दा वी है, जिस-च मैं जे किछ वी अपणिया समझा मुजब नचोड़ कड्डेयो हन, सैह दितियो हन। सारेयां ते बड्डी गल्ल एह है जे कांगड़े दे लखारियां दा रुझान सिर्फ कवता दैं पास्सैं ही जिआदा रहेया है, गद्य दे पास्सैं बड़ा धट्ट है। जे लेखां दियां किछ कताबां हन वी तां उपन्यास गिनतिया दे कनैं साहित्तिक नाटक तां कोई वी नीं है, इक-अंकी नाटक जरूर थोह्ड़े-मते हन। इक होर नचोड़ जेह्ड़ा मैं कड्ढेया पर कताबा-च कुसी वजहा नैं नीं दित्तेया, सैह एह वी है जे अकार-प्रकारे कनैं पेजां दे मामले-च कितणियां कताबां हन कनैं कितणे पोत्थू हन एह वी दिक्खणे दी गल्ल है। मिंजो जितणी जांणकारी थ्होई सारेयां ते छोटी कताब हरिकृष्ण मुरारी दी "बड़े स्यांणें लोक" जिस-च सिर्फ इक ही क्हांणी है कनैं सारेयां ते बड्डी कताब रमेश चन्द्र 'मस्ताना' दी "मिट्टिया दी पकड़" लेखां दी कताब है।

 

दयार :       एह् कताब लिखणे च कितणा बग्त लग्गा ?

रमेश मस्ताना : " कांगड़ी-प्हाड़ी-च प्रकाशत साहित्त : रीत-परम्परां कनैं त्याह्स " कताबा पर वचार करणा तां मैं काफी पैहलें शुरू कित्ता था पर फिरी तकरीबन "नौ-म्हीनें" तिकर वेदण झल्ली नैं कताबां कनैं जांणकारी कठ्ठी कित्ती। इस ते परन्त छ-सत्त म्हीनें कताबा दे छपणे-छपुआंणे-च लगी गे। मैं एत्थू एह वी दस्सणा चांहन्दा जे मैं कुसी "व्यावसायिक प्रकाशक" - ल कदीं नां जांन्दा नां गेया। मैं अपणियां सारियां कताबां दा लिखारी वी अप्पूं ही हां, प्रकाशक वी अप्पूं ही हां कनैं जिआदातर बंडणे आल़ा वी अप्पूं ही हां। जितणी वी मेहनत कनैं खर्चा करदा, अपणे ही पल्ले दा करदा, सिर्फ माँ सरस्वती जी दा शीरवाद लैंणें खातर। लच्छमी माता कुत्थीं मेहरबान होई जांह्न तां धन्नभाग नीं तां सरस्वती माता दा शीरवाद ही मेरे बास्तैं सब्बो-किछ।

 

दयार :       तुसां पहाड़ी कनै हिमाचली पहाड़ी दे आंदोलनकर्ता रेह्यो। पूरे सूबे दी इक भाषा तुसां दा सुपना था। इतिहास तुसां कांगड़ी भाषा दे साहित्य दा लिखेया। एह् ता बड्डा बदलाव है। सैह् भी ऐसे बग्ते च जदूं कई लेखक हिमाचली पहाड़ी दे विचार जो खारिज करा दे। क्या एह् मन्नी लइये भई हुण हिमाचली पहाड़ी दी गल बेमतलब है ?

रमेश मस्ताना : सुआल औक्खा वी है, किछ टेढा वी है कनैं अणसुलझ वी है। पूरे म्हाचले दी माॅं-बोली दी मन्नता दे बारे-च बे-स्हाबी कोसत कित्ती, केई पेपर पढ़े, केई लेख, राइट-अप कनैं प्रैस नोट छपुआए, एत्थू तिकर जे इसा गल्ला यो पकड़ी नैं जे म्हाचल बणेया ही प्हाड़ां कनैं प्हाड़िया करी नैं था, इस बास्तैं जे असां पंजाबिया कनैं पंजाब यो छड्डेया तां स्हांजो स्हाड़ी "प्हाड़ी" वी तां मन्नता दे रूपे-च मिलणा चाहिदी। पूरे देशे-च बसेयां म्हाचलियां नैं राब्ता कायम करी इक बड़ा-बड्डा "हस्ताक्षर अभियान" चलाई नै मेमोरेंडम केन्द्र सरकारा तिकर दिल्लिया कनैं प्रदेस सरकारा तिकर शिमलें पुजाया पर हासल क्या होया, मैं किछ नीं गलाई सकदा। असां तां पूरे म्हाचले दी गल्ल करदे रेह, सारियां बोली-भाखां-च म्हाचली-प्हाड़ी दा "जाग-जगैंण" लाई दैंही जमाई नैं छोल़ी करी "मक्खण" कड्ढणे दे सुपनें पाल़दे रेह पर लत्तां धीड़ने आल़ेयां ओह् छाह् छोल़ी जे गल्ल नीं गलांणे दी ! घट्टों-घट्ट बारहां जिलेयां दियां ठाह्रां बोली-भाखां बास्तैं अपणे-अपणे दावे हुंणा लगी पे। मन्नता तां इक ही भाखा यो मिलणा ही औक्खी है तां दसां-बीहियां यो कुन्हीं पुच्छणा ! मैं कुसी दी वी मां-बोली यो छोटा जां बड्डा नीं मन्नदा। सारियां ही बोलियाँ-च अज्ज साहित्त थोह्ड़ा-ब्हौत कुसी नां कुसी रूपे-च लखोआ दा। सारे लखारी वी आदरजोग हन पर जित्थू जे पूरे देशे कनैं प्रदेसे दी गल्ल होऐ तां दिल जरूर बड्डा करी लैंणा चाहिदा। जिह् तिकर सिर्फ कांगड़ी भाखा दे ही त्याह्स लिखणे दी तुसां गल्ल कित्ती है, मैं जितणी मैंहनत कनैं कोसत कित्तियो, तिस ते अद्धी वी होर करदा तां पूरे म्हाचले दा वी त्याह्स पूरा कित्ता जाई सकदा था पर मन था, नीं बणेया तां नीं ही बणेया !

भाखा दे मन्नता दे मुद्दे पर कांगड़े दिया तरफा ते मैं जितणियां जगहां पर पेपर पढ़े जां कांगड़े दे कुन्हीं होरनी वी पेपर पढ़ेया तां सभनां ही पूरी म्हाचली-प्हाड़ी दी जां प्हाड़ी दी ही गल्ल कित्ती, कदीं वी कांगड़ी दा राग नीं लाय्या। जदकि होरनां केइयां अपणी-अपणी माँ-बोली दी पैरवी वी कित्ती कनैं दावा वी कित्ता जे इसा ही बोलिया जो मन्नता मिलणा चाहिदी।

सेठी जी, तुसां अज्ज ब्हानें नैं छेड़ पाई तां दु:खी मनैं नैं किछ गलोई गेया नीं तां इस मुद्दे पर मैं किछ वी गलांणा छड्डी ही दित्तेया है। हुंण तां मिंजो एह वी लगदा है जे एह मुद्दा ही हुंण खत्म है। जिन्हां प्हाड़िया ते ही सब-किछ लेया, सैह ही नीं चांहन्दे, प्रदेस जिस नैं बणेया, सैह ही नीं चांहन्दा, राजनीतिक इच्छा-शक्ति, जेह्ड़ी सारेयां ते जिआदा जरूरी है, सैह ही नीं है। असां तां सैह जमानां वी दिक्खेया जाहलू मुख-मंतरी कनैं मंतरी कवियां सौगी स्टेजा पर बिच्छिया दरिया पर सौगी बैंह्न्दे थे। पराशर होरां यो मैं अप्पूं देसराज डोगरा जी दे छोटे अटैचिइए यो चुकी नैं चलदे दिक्खेया। तदैह्ड़ी लेखक अपणे यो धन्नभाग कनैं "गौरवान्वित" समझदे थे। अज्ज कुत्थू मत्था ऊच्चा करणा, कुसी-ल नां गल्ल करणे जोगी बेह्ल नां गल्ल सुणने जोगी ही टैंम ! चौंह्नीं पास्सेयां ते सारेयां लखारियां दे राग वी बखरे-बखरे कनैं बत्तां वी बखरियां-बखरियां ही। इस तरीके नैं कुजो क्या मिलणा कनैं कुत्थू ते क्या थ्होणा !



रमेश मस्ताना

झांझर छणकै, पखरू बोल्लै
(पहाड़ी कविता),
कागज के फूलों में
(हिंदी कविता),
आस्था के दीप,
लोकमानस के दायरे,
 पांगी घाटी की पगडंडियां एवं परछाइयां,
मिटिया दी पकड़ (गद्य साहित्य)
एक अनूठी और नयी पहल है : 

कांगड़ी-प्हाड़ी-च प्रकाशत साहित्त : रीत-परम्परां कनैं त्याह्स

 रमेश चन्द्र 'मस्ताना' जी की पुस्तक “कांगड़ी-प्हाड़ी-च प्रकाशत साहित्त : रीत-परम्परां कनैं त्याह्स”  एक ऐसी पुस्तक है, जिसे सच-मुच एक अनूठी और नयी पहल कहा जा सकता है। इस पुस्तक में जिला कांगड़ा के प्राचीन इतिहास की बात तो हुई ही है, साथ ही कांगड़ा के जितने भी कवि-लेखक हुए हैं और उन्होंने जिस भी विधा में जो कुछ भी लिख कर पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया है, सब का ही जिक्र और समीक्षा इस पुस्तक में हुई है। 'मस्ताना' जी ने अपनी बात रखते हुए अपनी भूमिका में इस पुस्तक के लिखने के उद्देश्य के बारे में स्पष्ट कर दिया है। वह लिखते हैं कि जैसे उन्होंने जिला कांगड़ा की सीमाओं के अंदर आने वाले लेखकों की रचनाओं का इस पुस्तक में जिक्र किया है, वैसे ही अगर हर जिले के लेखक, अपने-अपने जिले के अपनी मातृभाषा में लिखने वाले लेखकों की रचनाओं पर लिखें तो हिमाचली-पहाड़ी का कल्याण तो होगा ही होगा साथ में क्या-कुछ कैसा लिखा गया है, उसका भी पता चल जाएगा।  किसी एक लेखक के लिए हिमाचल प्रदेश के बारह जिलों के लेखकों की सभी रचनाओं का जिक्र और उनके साथ पूरा-पूरा न्याय करना चाहे असम्भव तो न हो पर थोड़ा-बहुत कठिन कार्य तो अवश्य ही लगता है। 'मस्ताना' जी ने हिमाचल प्रदेश की भाषा के नामकरण के बारे में उत्पन्न हुए मतभेदों का भी जिक्र किया है तथा उसके ‘हिमाचली-पहाड़ी’ नाम की वकालत  की है।  वह यह भी मानते लगे कि कि हिमाचली-पहाड़ी को मान्यता मिलना अभी दूर की ही कौड़ी है। उन्हें यह बात भी बहुत अखरती लगी कि हिमाचली-पहाड़ी में कविता अर्थात पद्य तो खूब लिखा जा रहा है पर गद्य के विभिन्न रूपों में बहुत ही कम लिखा और पुस्तक रूप में प्रकाशित किया गया है। जब कि वास्तविकता यह है कि गद्य का लिखा  जाना और प्रकाशित होना भाषा की उन्नति के लिए अनिवार्य है। 'मस्ताना' जी हिमाचली-पहाड़ी में अधिक से अधिक पुस्तकें प्रकाशित करने की आवश्यकता पर भी बल देते नजर आते हैं। उन्होंने यह सुझाव भी बड़े जोर-शोर के साथ दिया है कि अपनी लिखी पुस्तकें दूसरे लेखकों, विशेष कर समीक्षा करने वालों के पास पहुंचानी चाहिए ताकि उन्हें पढ़ कर समीक्षा करने वाला विद्वान कुछ लिख कर उन पर प्रकाश डाल सके। 

मुझे 'मस्ताना' जी की बातें और सुझाव बहुत बढ़िया और सच्चे-सुच्चे लगे। दरअसल हमने हिमाचली-पहाड़ी को कविताओं और गीतों की ही भाषा बना कर रख छोड़ा है। हम निरंतर कविताएं ही लिखते जा रहे हैं तथा कहानी, नाटक, लेख, उपन्यास, संस्मरण इत्यादि के लेखन की अभी तक अवेहलना कर रहे हैं। अनुवाद के नाम पर तो अभी तक कुछ भी विशेष नहीं हो सका है। चाहे लेखकों को हिमाचली-पहाड़ी में कविता लिखना आसान लगता हो पर यह बात तो सत्य है कि गद्य में लिखे जाने से पहाड़ी भाषा और मातृभाषा का कल्याण और विकास होना है। यह कठिन कार्य कौन करेगा, इस मुद्दे पर विचार होना अतिआवश्यक है।  लेखकों को एक दूसरे की पुस्तकें पढ़नी भी चाहिए और हो सके तो खरीदनी भी अवश्य चहिए। पढ़ कर उन कर अपनी गूढ़ व निष्पक्ष राय भी जरूर व्यक्त करनी चाहिए। इससे सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि साहित्य के मूल्यांकन के साथ-साथ भाषा का मानकीकरण भी स्वत: होता चलेगा। 

किसी भी बात को समझने के लिए उस बात की तह तक पहुंचना अतिआवश्यक होता है। पुस्तक के पहले ही अध्याय में कांगड़ा और कांगड़ी के इतिहास पर संक्षेप में बड़ी गहरी नजर डाली गई है। अपनी जन्म भूमि, अपने पूर्वजों और विरासत में जो कुछ मिला है, सभी को उसकी जानकारी होना भी लाजिमी है। इस के साथ-साथ अपनी-अपनी मातृभाषा से प्यार व उसे बड़े गर्व के साथ बोलने का फर्ज भी हर शख्स को निभाना चाहिए। दूसरे अध्याय में 'मस्ताना' जी साहित्य के भेद-प्रकार और लोक-साहित्य पर रोशनी डालते हैं। यह अध्याय तो मेरे जैसे विद्यार्थियों के लिए बड़े ही काम की जानकारी देता है। 'मस्ताना' जी वर्तमान युग की खोजों — टी.वी., कम्प्यूटर, लैपटॉप, मोबाइल, टैब के साथ-साथ मीडिया और सोशल मीडिया के योगदान को भी साहित्य के विकास के लिए खास मानते हैं। उनका मत है कि कवि और लेखक समाजिक प्राणी बनने के साथ-साथ यदि साहित्यिक प्राणी भी बनें और एक सच्ची-सुच्ची व सुथरी सोच रखें तो वे समाज को एक नई दिशा व दशा दे सकते हैं। ‘मस्ताना’ जी लोक साहित्य के खजाने को संभाल कर रखने तथा अगली पीढ़ियों के हाथ सौंपने की गुहार भी लगाते हैं।

अपनी इस किताब के तीसरे अध्याय में 'मस्ताना' जी ने कांगड़ी कविता के प्रकाशित भिन्न-भिन्न रूप-भेदों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने कांगड़ी-पहाड़ी कविता को चार युगों में बांटा है। पहले युग को वह ‘बाबा कांशीराम युग’ का नाम देते हैं। दूसरे युग का कालखंड सन् 1950 ते 1975 का है, जिस में सोमनाथ ‘सोम’, लच्छमन दास ‘मस्ताना’, चक्रधारी शास्त्री, डॉ. पीयूष गुलेरी, डॉ. गौतम शर्मा 'व्यथित' वगैरह के योगदान का जिक्र है। तीसरा युग बीसवीं शताब्दी के अंत तक की कविता का युग है तथा इक्कीसवीं सदी के आरंभ से लेकर अभी तक का कालखंड चौथा युग है, जिस का ‘मस्ताना’ जी ने विस्तार में वर्णन किया है।  उन्होंने कविता की विभिन्न विधाओं में प्रकाशित पुस्तकों का पूरा-पूरा विवेचन करने का प्रयास किया है, चाहे वह महाकाव्य हो, खंडकाव्य हो या चाहे मुक्तक काव्य का रूप हो। 

चौथे अध्याय में 'मस्ताना' जी ने कांगड़ी निबन्ध-लेखन की परम्पराओं पर दृष्टि डाली है और पांचवें अध्याय में कांगड़ी उपन्यास, कहानी व लघुकथा पर चर्चा विस्तार से सामने रखी है। छठे अध्याय में उन्होंने नाटकों, एकांकी नाटकों तथा काव्य-नाटकों की परम्पराओं का जिक्र करते-करते अभिनय की किस्मों, नाटक के तत्त्वों, पात्रों, रसों के साथ-साथ भेदों-प्रकारों पर भी रोशनी डालने तथा कांगड़ी में प्रकाशित हुए नाटक साहित्य का विस्तृत वर्णन किया है। पुस्तक का सातवां अध्याय साहित्यिक विधाओं का कांगड़ी-पहाड़ी में अनुवाद की परम्परा पर रोशनी डालता है तो वहीं आठवां अध्याय कांगड़ी लोक-गीतों पर विस्तार से चर्चा करता है और उनकी साज-संभाल की आवश्यकता पर बल देता है। 

अंतिम अध्याय में “मुकदी गल्ल कनैं सार-निचोड़” करते-करते 'मस्ताना' जी मातृभाषा की संभाल और उन्नति के लिए बहुमूल्य सुझाव भी देते हैं। यह पुस्तक अपनी किस्म की एक अनुपम पुस्तक ही नहीं एक दस्तावेज भी कही जा सकती है। कांगड़ी साहित्य अथवा कांगड़ा पर शोध करने वालों के लिए तो यह बहुत ही काम की किताब है। मैं बड़े गर्व के साथ कह सकता हूं कि जो लोग अपनी भाषा और साहित्य से प्रेम करते हैं, उन्हें यह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए और अपने पास संभाल कर रखनी चाहिए।

पुस्तक : कांगड़ी-प्हाड़ी-च प्रकाशत साहित्त : रीत-परम्परां कनैं त्याह्स। (विवरणात्मक एवं विवेचनात्मक रचना) लेखक  : रमेश चन्द्र 'मस्ताना'। प्रकाशक : प्रिय प्रकाशन, मस्त-कुटीर : नेरटी (कांगड़ा) 176208. प्रकाशन र्ष  : 2024. आइएसबीएन : 978-93-340-5037-0. मूल्य : रु. 500/- (सजिल्द) 


हिमाचल प्रदेश के जिला काँगड़ा से संबन्ध रखने वाले भगत राम मंडोत्रा एक सेवानिवृत्त सैनिक हैं। उनकी  प्रकाशित पुस्तकें हैं 
     
 जुड़दे पलरिह्ड़ू खोळूचिह्ड़ू मिह्ड़ूपरमवीर गाथा..फुल्ल खटनाळुये देमैं डोळदा रिहासूरमेयाँ च सूरमे और
हिमाचल के शूरवीर योद्धा।
यदाकदा 'फेस बुकपर 'ज़रा सुनिए तोकरके कुछ न कुछ सुनाते रहते हैं।